धार्मिक सौहार्द और एकता का वाहक है मेला

देवा (बाराबंकी)


प्रेम, सद्भाव और धार्मिक सौहार्द का इतिहास समेटे देवा मेला पिता के प्रति सम्मान का प्रतीक है। सूफी संत वारिस अली शाह ने अपने वालिद सैय्यद कुर्बान अली शाह की स्मृति में करीब डेढ़ सदी पहले देवा मेला रूपी पौधा लगाया था। देवा मेला आज वट वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। इसकी जड़ों में एकता और भाईचारे का संदेश समाहित है।


करीब तीन साल की उम्र में ही हाजी वारिस अली शाह के सिर से पिता का साया उठ गया था। कुछ दिनों बाद ही उनकी मां भी परलोक सिधार गईं। माता-पिता के प्रेम से महरूम वारिस अली ने अपने वालिद की याद में देवा मेला की शुरुआत की थी। वारिस अली अक्सर सफर में रहते थे। ऐसे में तमाम अनुयायी काफी समय तक उनका दर्शन नहीं कर पाते थे। मेला शुरू करने के पीछे एक मकसद यह भी था कि इसी बहाने अनुयायी भी आ सकेंगे। शुरुआत में वारिस अली खुद दुकानदारों को बुलवाते थे और उनके खाने-पीने का इंतजाम करवाते थे। किसी दुकानदार को नुकसान होने पर उसकी भरपाई भी कराते थे। वारिस अली शाह के पर्दा करने के बाद मेले की निगरानी उनके चाहने वाले करते रहे। 1925 में मेले की देखभाल का जिम्मा डीएम की अध्यक्षता वाली 12 सदस्यीय कमेटी के हाथ में आ गया। देवा मेला को कार्तिक उर्स के नाम से भी जाना जाता है। करीब पांच किमी क्षेत्रफल में फैला देवा मेला आज प्रदेश के बड़े मेलों में शुमार है। यहां का घोड़ा, गधा और भैंस बाजार प्रदेश भर में मशहूर है।


गूंजते हैं वेद मंत्र और कुरआन की आयतें: देवा मेला के दौरान ऑडीटोरियम में सीरतुन्नबी में जहां नात पाक के स्वर गूंजते हैं, वहीं मानस सम्मेलन में चौपाइयां और वेद मंत्र की गूंज सुनाई देती है। कवि सम्मलेन और मुशायरा भी गंगा-जमुनी तहजीब को बढ़ावा देते हैं।


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